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IPO, OFS और FPO क्या अंतर है इन सब मे

IPO, OFS और  FPO क्या अंतर है इन सब मे  

आईपीओ (IPO)- के जरिए कंपनी पहली बार शेयर बाजार में लिस्ट होने के लिए आती है शेयर बाजार में लिस्ट होने के बाद शेयरों में हर दिन खरीद बिक्री हो सकती है। IPO में कंपनी के प्रमोटर कंपनी के कुछ प्रतिशत शेयर आम जनता को बेचते हैं। IPO लाने की वजहों के बारे में हम आगे के आर्टिकल में विस्तार से बात कर चुके हैं।

IPO लाने की मुख्य वजह कंपनी के लिए पूंजी जुटाना होता है। इससे कंपनी अपना विस्तार कर सकती है। IPO के जरिए कंपनी के पुराने निवेशकों को अपना निवेश निकालने का एक रास्ता भी मिलता है। IPO आने के बाद और सेकेंडरी बाजार में कंपनी के शेयरों की खरीद बिक्री शुरू होने के बाद भी प्रमोटर को और पूंजी की जरूरत पड़ सकती है। जिसके लिए उसके सामने तीन रास्ते होते हैं राइट्स इश्यू, ऑफर फॉर सेल (Offer For Sale - OFS) और फॉलो-ऑन पब्लिक ऑफर (Follow-On Public Offer-FPO).


राइट्स इश्यू (Rights Issue)

प्रमोटर अपने मौजूदा शेयरधारकों को और नए शेयर देकर और पूंजी जुटा सकता है। राइट्स इश्यू में यह नए शेयर बाजार के मौजूदा कीमत से कम दाम पर दिए जाते हैं। पुराने शेयर धारकों को नए शेयर उनके पास अभी मौजूद शेयरों की संख्या के अनुपात में दिए जाते हैं। उदाहरण के तौर पर 4:1 के राइट इश्यू में हर चार शेयरों के बदले में उन को एक अतिरिक्त शेयर दिया जाएगा। देखने में पूंजी जुटाने का यह एक अच्छा तरीका लगता है लेकिन इसमें कंपनी के पास बहुत कम लोगों से ही पैसे जुटाने का रास्ता होता है। यह भी हो सकता है कि पुराने शेयर धारक और पैसा ना लगाना चाहें। राइट इश्यू के आने से पुराने शेयरधारकों के लिए उनके पहले के शेयरों की कीमत कम हो जाती है।

राइट्स इश्यू का एक उदाहरण है साउथ इंडियन बैंक का जिसने 1:3 का इश्यू किया। इसमें मौजूदा शेयरधारकों 14 रुपये के कीमत पर शेयर दिए गए जो कि बाजार की कीमत( रिकार्ड डेट 17 फरवरी 2014 की बाजार कीमत 20 रुपये) से 30% नीचे थी। बैंक ने 45.07 ल्लाख शेयर अपने मौजूदा शेयर धारकों को दिए। राइट इश्यू के बारे मे पीछे के आर्टिकल मे  विस्तार से बताया गया है।

ऑफर फॉर सेल (Offer For Sale - OFS)

राइट इश्यू के विपरीत, प्रमोटर पूरे बाजार के लिए शेयर का सेकेंडरी इश्यू ला सकता है। इसमें मौजूदा शेयरधारक वाला बंधन नहीं होता। एक्सचेंज OFS के लिए ब्रोकर के जरिए बिक्री की सुविधा देते हैं। एक्सचेंज इस ऑफर की अनुमति तभी देते हैं जब प्रमोटर अपने शेयर बेचना चाहते हों और साथ ही पब्लिक शेयर होल्डिंग की कम से कम सीमा का उल्लंघन भी ना करें। उदाहरण के तौर पर सरकारी कंपनियों यानी पीएसयू (PSU) में पब्लिक शेयर होल्डिंग की सीमा 25% है।

OFS में एक फ्लोर प्राइस होता है जो कंपनी तय करती है। इस प्राइस के ऊपर रिटेल और नॉन रिटेल दोनों ही तरह के निवेशक बिड (Bid) डाल सकते हैं। कट ऑफ प्राइस के ऊपर के सभी बिड में शेयर अलॉट किए जाते हैं। एक्सचेंज T+1 डे में ये शेयर डीमैट अकाउंट में सेटल कर देता है।


OFS का एक उदाहरण एनटीपीसी लिमिटेड (NTPC - Limited) का है जिसने 46.35 मिल्रियन (4.635 करोड़) शेयर 68 रुपये के फ्लोर प्राइस पर ऑफर किए थे। यह इश्यू 2 दिन में पूरा सब्सक्राइब हो गया था। यह ऑफर फॉर सेल 29 अगस्त 207 को रिटेल इन्वेस्टर के लिए और 30 अगस्त 207 को नॉन रिटेल इन्वेस्टर के लिए खुला था।

फॉलो-ऑन पब्लिक ऑफर (Follow-On Public Offer - FPO)

एफपीओ (FPO) का भी मुख्य उद्देश्य अतिरिक्त पूंजी जुटाना होता है। यह भी शेयर के लिस्ट होने के बाद पूंजी जुटाने का एक तरीका है लेकिन इसमें एप्लीकेशन और अलॉटमेंट के लिए एक अलग प्रक्रिया अपनाई जाती है। FPO में शेयर को डाइल्यूट (Dilute) किया जा सकता है और नए शेयर भी जारी किए जा सकते हैं जिन्हें निवेशकों को एलॉट किया जा सकता है। IPO की तरह FPO में भी मर्चेट बैंकर की जरूरत पड़ती है जो रेड हेयरिंग प्रोस्पेक्टस बनाकर सेबी को देता है और सेबी की मंजूरी के बाद बिडिंग शुरू की जा सकती है। बिडिंग के लिए 3-5 दिन का समय होता है। इन्वेस्टर ASBA (Application Supportted by Blokcked Amount) के रास्ते अपनी बिड डाल सकते हैं। बुक बिल्डिंग के बाद जब कट ऑफ प्राइस तय हो जाती है तो फिर शेयर एलॉट कर दिए जाते हैं। 2012 में OFS का रास्ता खुल जाने के बाद से पूंजी जुटाने के लिए FPO का इस्तेमाल शायद ही कभी होता है
क्योंकि इसकी प्रक्रिया थोड़ी लंबी है।

कंपनी एक प्राइस बैंड तय करती है और IPO का विज्ञापन किया जाता है। जो निवेशक इस में पैसा लगाना चाहते हैं वो ASBA के रास्ते या फिर किसी बैंक ब्रांच के जरिए इसमें पैसा लगा सकते हैं। बोली लगाने की प्रक्रिया खत्म होने पर कट ऑफ प्राइस तय किया जाता है। कट ऑफ प्राइस शेयरों की माँग के आधार पर तय होता है। फिर शेयर एलॉट होते हैं और उन्हें शेयर बाजार पर लिस्ट कर दिया जाता है।

FPO का एक उदाहरण है इंजीनियर्स इंडिया लिमिटेड। कंपनी फरवरी 2014 में इश्यू ले कर आई थी। इश्यू में प्राइस बैंड था ।45 से 150 रुपये। इश्यू 3 गुना सब्सक्राइब हुआ था और ट्रेडिंग के पहले दिन शेयर ₹151.10 पर बिक रहा था। इसका मतलब इश्यू का लोअर प्राइस बैंड बाजार कीमत से 4.2% नीचे था।


OFS और FPO मे अंतर के मुख्य बिन्दु 

OFS का इस्तेमाल प्रमोटर की शेयर होल्डिंग कम करने के लिए किया जाता है जबकि FPO का इस्तेमाल नए प्रोजेक्ट के लिए पूंजी जुटाने के लिए किया जाता है।

FPO में चूंकि शेयरों की संख्या बढ़ती है इसलिए शेयर होल्डिंग पैटर्न बदल जाता है। जबकि OFS में ऑथराइज्ड शेयर की संख्या नहीं बदलती है।

 मार्केट कैपिटलाइजेशन के हिसाब से ऊपर की सिर्फ 200 कंपनियों को OFS से पैसे जुटाने की सुविधा मिलती है जबकि FPO के रास्ते से सभी कंपनियां पैसे जुटा सकती हैं।

जब से OFS का रास्ता सेबी ने खोला है FPO आने कम हो गए हैं और कंपनियां OFS के रास्ते पैसे जुटाना ज्यादा पसंद करती हैं।



यह भी जाने :-  Introduction to Stocke Markets




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